दीपक कुमार

 

दीपक कुमार

(१९६४ – वर्तमान)

दीपक उस पीढ़ी से आते हैं जिसने “भारत” और “इंडिया” दोनों को प्रचुरता से देखा, जिया, और भोगा है। उनका बचपन बिहार के छोटे शहरों, कस्बों, और गाँवों में बीता जबकि वयस्क जीवन महानगरों में व्यतीत हुआ है। साहित्य से गहरा लगाव होने के साथ-साथ वे लम्बे समय से हिंदी व अंग्रेजी पत्रकारिता (आई० टी०), मार्केट रिसर्च, तथा लेखन में भी सक्रिय रहे हैं। उनकी रचनाओं में इन विभिन्न पृष्ठभूमियों का समावेश और समायोजन स्पष्ट दिखाई देता है।

धूल

आँखें खोलकर हम देखते हैं,
संसार का सौंदर्य;
दृष्टि दौड़ाकर सराहते हैं,
प्रकृति का माधुर्य।
प्रसन्नता होती है हमें अपने चक्षुवान होने की
होता है गर्व अक्सर इस बात का भी
कि,
नयनों का खजाना हमारे पास है;
कला सुन्दर है, इसका हमें अहसास है।
सोचकर यह सब,
ख़ुशी की एक लहर सी
हमारे अंदर दौड़ जाती है।
हाँ, एक बात पर तभी
याद आती है
कि.
ये सुविधाएँ,
प्रकाश की किरणों का दान हैं;
दृष्टि को औचित्य भी उन्होंने किया प्रदान है।
तो,
नमन करते हैं उन्हें
पर,
भूल जाते हैं,
कि किरणों का प्रकाश धूल के कण फैलाते हैं;
या स्पष्ट कहें तो,
वस्तुएँ दृष्टिगोचर वही बनाते हैं.
पर इस तथ्य से अनभिज्ञ,
हम उन्हें रौंद डालते हैं।
फिर रश्मियों का आभार प्रकट कर,
अपने भाग्य पर इतराते हैं।